Wednesday, 16 January 2013

हमारे संस्कार :अक्षर आरंभ संस्कार क्यों


लिपि में प्रयुक्त होने वाले अक्षरों से जसि संस्कार का श्रीगणेश किया जाए, उसे अक्षरारम्भ अथवा विद्यारम्भ संस्कार कहते हैं। ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी में महामुनि पाणिनी लिपि का उल्लेख करते हं। भगवान बुद्ध के समय में अनेक लिपियां प्रचलित थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भग्वद्गीता में अक्षरों में आकार को सर्वश्रेष्ठ माना है। महाभारत के लेखन का गुरुभार भगवान श्रीगणेश ने संभाला था। तांत्रिक वांग्मय में अक्षरों की देवता के रूप में पूजा की जाती है। षट्चक्रों के पटल अक्षर ध्वनियों से स्पंदित होते हैं। वेदों का सारभूत ऊं एकाक्षर है।
लिपिज्ञान भारतीय मनीषियों को अति प्राचीन काल से था, किंतु कुछ आधुनिकों के मतानुसार प्राचीन काल में भारतीय लिपिज्ञान से अपरिचित थे। इसकी सम्पिुष्टि में वे वेदों की श्रुति परम्परा को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करते हंै। यद्यपि वेदों का अभ्यास गुरुमुख से ही किया जाता था, तथापि लौकिक व्यवहार के निर्वाह हेतु लिपि का निश्चयत: आविर्भाव हो चुका था। शौनकीय और माध्यन्दिन संहिता में तो 'लिख् धातु का अनेक बार प्रयोग किया गया है।
विद्यारम्भ संस्कार का अनुष्ठान चूडाकरण-संस्कार के अनन्तर ही किया जाना चाहिए - 'वृत्तचौलकर्मा लिपिं संख्यानं चोपयुञ्जीत।Ó जन्म से पांचवें वर्ष में इसकी सम्पन्नता को उपयुक्त माना गया है। उपयुक्त देशकाल में किया गया संस्कार बालक के मन पर अमिट प्रभाव छोड़ता है। जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे घड़े पर लाल काले रंगों से जो रेखाएं खींच दी जाती हैं वे उसे पकाने पर अमिट हो जाती हैं, उसी प्रकार बालमन पर यथासमय डाला गया संस्कार अमिट हो जाता है। कोमल शाखा को चाहे जिस ओर मोड़ दो, वृक्ष की शाखा के रूप में बढऩे पर भी वह पूर्ववत् मुड़ी रहेगी। किंतु पश्चात उसे दूसरी दिशा में मोडऩा संभव न होगा, प्रयास करने पर वह टूट जाएगी।

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