Monday 10 September 2018

क्या संभव है एक संस्कृति एक देश ?


राकेश माथुर।।

आजकल हमारे देश में एक देश एक कर, एक देश एक धर्म, एक देश एक संस्कृति के नारे खूब उछाले जा रहे हैं। एक टैक्स के नाम पर जीएसटी लगाया गया। लेकिन हकीकत में देखें तो बिल में दो जीएसटी केरूप में रकम काटी जाती है। सीजीएसटी और एसजीएसटी। तो उसे एक कर कहना धोखाधड़ी है। शुद्ध सरकारी धोखाधड़ी। किससे?  आम जनता से। इसी तरह जब कहा जा रहा है कि पूरे हिंदुस्तान में (देश का आधिकारिक नाम भारत और इंडिया है) अब देश में एक देश एक संस्कृति का नारा लगाया जा रहा है। एक संस्कृति ? क्या यह संभव है ? वह भी बहुसंस्कृति वाली इस भारतभूमि पर ? मुख्य प्रश्न है कौन सी संस्कृति ? हिंदुस्तानी ? खिचड़ी ? या विशुद्ध हिंदू संस्कृति ?
हिंदूबहुल देश है । एक संस्कृति का नारा लगाने वाले भी हिंदूवादी संगठनों से जुड़े है। तब क्या वे हिंदू संस्कृति पूरे देश में लागू करना चाहते हैं ? इस तथाकथित हिंदू संस्कृति में क्या सर्वसाधारण हिंदू या मुसलमान को कभी पूरी श्रद्धा हो सकती है? तब फिर यदि एक संस्कृति हिंदू संस्कृति ही मानी जाए तो यह आशा कैसे की जा सकती है कि उसे मुसलमान भी स्वीकार कर ही लेंगे ? कुछ लोग कह सकते हैं कि ‘मुसलमान कलमा-कुरान और मस्जिद का आदर करते हुए अपनी भाषा और वेशभूषा रखते हुए भी भारतीय संस्कृति के रूप में हिंदू संस्कृति का पालन कर सकते हैं।’ फिर आचार-विचार, रहन-सहन, इतिहास-साहित्य, दर्शन, धर्म आदि से भिन्न संस्कृति कौन सी वस्तु होगी जिसे मानकर मुसलमान उस पर गर्व कर सकेगा ? कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि ‘एक संस्कृति हिंदू संस्कृति ही है, वही सबको माननी होगी, जो एेसा नहीं करेंगे उन्हें देश छोड़ना पड़ेगा।’ किंतु ऐसा कहना भारतीय संविधान द्वारा घोषित सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष जो भी आप कहें) नीति के ही विरुद्ध नहीं बल्कि हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की मूल भावना के ही विपरीत है। हिंदू धर्म तो प्रत्येक जाति, प्रति व्यक्ति को स्वधर्मानुसार चलने की स्वतत्रता देता है। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:’ उसका सिद्धांत है। अत: उसे कभी भी अभीष्ट नहीं कि येन केन प्रकारेण सभी हिंदू बना लिए जाएं। हिंदू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है, इस दृष्टि से एक संस्कृति का नारा ठीक है पर इसका यह अभिप्राय कतई नहीं कि देश में अल्पसंख्यकों की संस्कृतियों का क्षरण हो। यह भारत की ही विशेषता है कि वह भिन्नता में भी एकता देखता है। एक सूत्र में गुंथे हुए मणियों की माला का उदाहरण भी इसमें देखा जा सकता है।

असल में संस्कृति है क्या ? 
यह समझना बहुत जरूरी है। ‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा का है। पर दुख है कि आजकल इसका प्रयोद अंग्रेजी के कल्चर शब्द के अनुवाद के रूप में किया जा रहा है जिससे संस्कृति शब्द का वास्तविक अर्थ कभी समझ में नहीं आता।

क्या संभव है एक संस्कृति एक देश ?

राकेश माथुर।।

आजकल हमारे देश में एक देश एक कर, एक देश एक धर्म, एक देश एक संस्कृति के नारे खूब उछाले जा रहे हैं। एक टैक्स के नाम पर जीएसटी लगाया गया। लेकिन हकीकत में देखें तो बिल में दो जीएसटी केरूप में रकम काटी जाती है। सीजीएसटी और एसजीएसटी। तो उसे एक कर कहना धोखाधड़ी है। शुद्ध सरकारी धोखाधड़ी। किससे?  आम जनता से। इसी तरह जब कहा जा रहा है कि पूरे हिंदुस्तान में (देश का आधिकारिक नाम भारत और इंडिया है) अब देश में एक देश एक संस्कृति का नारा लगाया जा रहा है। एक संस्कृति ? क्या यह संभव है ? वह भी बहुसंस्कृति वाली इस भारतभूमि पर ? मुख्य प्रश्न है कौन सी संस्कृति ? हिंदुस्तानी ? खिचड़ी ? या विशुद्ध हिंदू संस्कृति ?
हिंदूबहुल देश है । एक संस्कृति का नारा लगाने वाले भी हिंदूवादी संगठनों से जुड़े है। तब क्या वे हिंदू संस्कृति पूरे देश में लागू करना चाहते हैं ? इस तथाकथित हिंदू संस्कृति में क्या सर्वसाधारण हिंदू या मुसलमान को कभी पूरी श्रद्धा हो सकती है? तब फिर यदि एक संस्कृति हिंदू संस्कृति ही मानी जाए तो यह आशा कैसे की जा सकती है कि उसे मुसलमान भी स्वीकार कर ही लेंगे ? कुछ लोग कह सकते हैं कि ‘मुसलमान कलमा-कुरान और मस्जिद का आदर करते हुए अपनी भाषा और वेशभूषा रखते हुए भी भारतीय संस्कृति के रूप में हिंदू संस्कृति का पालन कर सकते हैं।’ फिर आचार-विचार, रहन-सहन, इतिहास-साहित्य, दर्शन, धर्म आदि से भिन्न संस्कृति कौन सी वस्तु होगी जिसे मानकर मुसलमान उस पर गर्व कर सकेगा ? कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि ‘एक संस्कृति हिंदू संस्कृति ही है, वही सबको माननी होगी, जो एेसा नहीं करेंगे उन्हें देश छोड़ना पड़ेगा।’ किंतु ऐसा कहना भारतीय संविधान द्वारा घोषित सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष जो भी आप कहें) नीति के ही विरुद्ध नहीं बल्कि हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की मूल भावना के ही विपरीत है। हिंदू धर्म तो प्रत्येक जाति, प्रति व्यक्ति को स्वधर्मानुसार चलने की स्वतत्रता देता है। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:’ उसका सिद्धांत है। अत: उसे कभी भी अभीष्ट नहीं कि येन केन प्रकारेण सभी हिंदू बना लिए जाएं। हिंदू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है, इस दृष्टि से एक संस्कृति का नारा ठीक है पर इसका यह अभिप्राय कतई नहीं कि देश में अल्पसंख्यकों की संस्कृतियों का क्षरण हो। यह भारत की ही विशेषता है कि वह भिन्नता में भी एकता देखता है। एक सूत्र में गुंथे हुए मणियों की माला का उदाहरण भी इसमें देखा जा सकता है।

असल में संस्कृति है क्या ? 
यह समझना बहुत जरूरी है। ‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा का है। पर दुख है कि आजकल इसका प्रयोद अंग्रेजी के कल्चर शब्द के अनुवाद के रूप में किया जा रहा है जिससे संस्कृति शब्द का वास्तविक अर्थ कभी समझ में नहीं आता।

Friday 7 August 2015

संस्कारों की आवश्यकता क्यों ?


राकेश माथुर /
हमारा हर विचार, कथन और काम हमारे मन मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है। इसे संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों का समष्टिरूप ही चरित्र कहलाता है। यह चरित्र ही निश्चित करता है कि आने वाले समय में हमारा उद्धार होगा या पतन, केवल जीवित अवस्था में ही नहीं, मृत्यु के बाद भी।
एक विद्वान ने कहा है कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में सकारात्मक चिंतन और नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का संयोजन ही संस्कार कहलाता है। इन संस्कारों की जड़ें अतीत में जमती हैं, वर्तमान में विकास पाती हैं और भविष्य में पल्लवित-पुष्पित होती हैं। हमारे नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक गौरव की जड़ें बहुत मजबूत हैं, लेकिन आज पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध हमें विवेकहीन बनाती जा रही है।हमारा युवा वर्ग पश्चिम की हर चीज को बिना विवेक के अच्छा कह कर उसका अनुसरण करने लगा है। क्या हमें नहीं लगता कि हमारी संस्कृति की बागडोर वर्तमान में ही हमसे टूटने लगी है तो फिर भविष्य में इसमें कैसे फूल खिलेंगे और फल लगेंगे? हमें इस सांस्कृतिक प्रदूषण को रोकने का प्रयास करना है।
हमारे ऋषियों ने कहा है कि धर्म आचरण में पलता है एवं सेवा से व्यापक होता है। अत: उन्होंने आचार: परमो धर्म: की व्यवस्था दी। यह भी कहा कि चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति एवं सम्पदा है। अनन्त सम्पदाओं का स्वामी होने पर भी यदि मनुष्य चरित्रहीन हा तो वह विपन्न ही माना जाएगा। हमारा धर्म हमें एवं हमारे जीवन को समग्रता में जीना सिखाता है। धर्म की शिक्षा दिए बिना किसी को शिक्षित करने का अर्थ उसे एक चतुर शैतान बनाना है।
 
जीवन केवल शिक्षा प्राप्ति के लिए नहीं है बल्कि विवेकपूर्वक आत्मा के गुणों के विकास के लिए है। प्राप्त शिक्षा का दुरुपयोग न होने पाए इसके लिए शिक्षित मानव का दीक्षित होना अनिवार्य है। श्रीरामचरितमानस में एक दोहे के एक चरण में कहा गया है..साधक सिद्ध सुजान..प्रश्न है कि जब साधक से सिद्ध हो गया हो तो फिर तुलसीदासजी ने सुजान शब्द क्यों जोड़ा? कारण स्पष्ट है..रावण साधक से सिद्ध हो चुका था। अनेक प्रकार की सिद्धियां उसे प्राप्त थीं, लेकिन सुजान अर्थात् संस्कारित न होने के कारण वह अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग कर बैठा। और वह दुरुपयोग ही उसके सर्वनाश का कारण बना। अत: सिद्ध होने के बाद सुजान होना आवश्यक है।
आज का संदर्भ लें तो विश्व में इतनी आणविक शक्ति मौजूद है कि हमारी धरती को कई बार नष्ट करने की क्षमता उसमें है। आणविक शक्ति का दुरुपयोग इतना भयंकर और प्रलयंकारी होगा कि सारी सभ्यता और संस्कृति हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगी। उसका दुरुपयोग रोकने का एकमात्र उपाय सुजनता ही है।

पिता की विरासत :
पिता धन धन देता है पुत्र को। यदि पुत्र संस्कारित नहीं है तो वह इस प्राप्त धन को नष्ट कर देगा। पुत्र यदि संस्कारित है तो उसे पतिा से धन नहीं मिले तो भी वह धन पैदा कर लेगा। अत: पुत्र को केवल धन देने का महत्व नहीं, संस्कार देने का महत्व है।
हमारे यहां संस्कारित और सदाचारी व्यक्ति उसी को कहा गया है जिसकी क्रियाएं विकार के अधीन न होकर विचार के नियंत्रण में होती हैं। जो विवेकशील होता है उसकी इंद्रियां उसके नियंत्रण में रहती हैं। अन्यथा जिस प्रकार दुष्ट घोड़े रथ में बैठे व्यक्ति को संकट में डाल देते हैं उसी प्रकार अनियंत्रित इंद्रियां मनुष्य को पतन की ओर ले जाती हैं।  जो शरीर, वाणी तथा मन से संयत है तथा स्वार्थ के लिए असत्य नहीं बोलता ऐसे व्यक्ति को ही सदाचारी कहते हैं।
गुण से रूप की, दान से धन की, सदाचार से कुल की शोभा होती है। कमल की प्रार्थना के बिना ही सूर्य उसे विकसित कर देता है। कुमुदनी की प्रार्थना के बिना ही चंद्रमा उसे खिला देता है। सदाचारी स्वत: ही दूसरों के हित में काम करते हैं। उन्हें किसी के द्वारा याचना की प्रतीक्षा नहीं रहती। सदाचारी एवं संस्कारित व्यक्ति की पहचान उसके आचरण से होती है।

एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से किसी ने पूछा कि महाराज ऐसे लोग भी देखने में आते हैं जिन्हें पूरी रामायण, श्रीमदभागवत तथा गीता याद हैं लेकिन उनका जीवन पवित्र नहीं है। ऐसा क्यों? इस पर श्रीरामकृष्ण परहंसदेवजी महाराज ने कहा, तुमने निर्मल आकाश में उड़ते हुए गिद्ध को देखा है न। उड़ता तो निर्मल आकाश में ही है लेकिन उसकी दृष्टि कहां है, पृथ्वी पर पड़े सड़े मांस पर। वह जैसे ही पृथ्वी पर सड़ा मांस देखता है सीधे नीचे गोता लगाता है और उस तक पहुंच जाता है। इसलिए जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि का निर्माण होता है। इसलिए संतों ने कहा है कि अपनी दृष्टि पावन रखो। नेत्र शुद्ध होंगे तो मन में राम प्रवेश करेगा नेत्र अशुद्ध होंगे तो काम प्रवेश करेगा।
हमारा न धन से काम होता है न बल से, न नाम से न यश से। वरन् हमारी सच्चरित्रता ही कठिनाइयों की दीवारों को तोड़ कर अपना रास्ता सुगम बना लेती है। आचरणरहित विचार कितने अच्छे क्यों न हों, उन्हें खोटे मोती की तरह ही समझना चाहिए। हमारी सच्चरित्रता हमें आलस्य एवं अपव्यय जैसे दुर्गुणों से बचाती है। जैसे फूटे घड़ेे में कुछ भी संचय नहीं होगा, वैसे ही दुर्गुणों के कारण कुछ भी उपलब्धि नहीं होगी। सदाचारी व्यक्ति शुद्ध होता है और जो शुद्ध होता है वही बुद्ध होता है।
सच्चरित्र एवं संस्कारित व्यक्ति समय और साधन का सदुपयोग करते हैं। अत: हमें चाहिए कि समय और साधन का सदुपयोग करें। और इसके लिए चरित्रवान एवं संस्कार संपन्न बनें।

Tuesday 21 July 2015

आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:

शुद्ध अन्न से अंत:करण की शुद्धि



भारतीय संस्कृति यह मानती है कि भोजन की शुद्धि होने पर मानव के सत्व की शुद्धि होती है और अंत:करण निर्मल एवं पावन हो जाता है।  इतना ही नहीं, सत्व की शुद्धि होने पर समृति दृढ़ हो जाती है।  और समृति के ध्रुव हो जाने पर हृदय की ग्रंथियों का भेदन हो जाता है - सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भेसर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष:।  इस प्रकार अन्न की शुद्धि की बहुत महिमा है।  इसलिए भारतीय सनातन संस्कृति ने अन्न एवं आहार की शुद्धि पर विशेष बल दिया है। अन्नमय: हि सौम्य मन:। अर्थात् हे सौम्य अन्न से ही मन बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन हो जाता है और तदनुरूप ही बुद्धि, भावना, विचार एवं कल्पनाशीलता निर्मित होती है।
सनातन आदर्श यह रहा है कि ईमानदारी की कमाई ही खाई जाए। बेईमानी, असत्य तथा धोखेबाजी से अर्जित जीविका से बचा जाए। अथर्ववेद का कथन है.. रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या: पापीस्ता अनीनशम्।।  अर्थात् पुण्य से कमाया हुआ धन ही मनुष्य को समृद्धि दे सकता है। जो पापयुक्त धन है, उसको मैं नाश करने वाला जानूं। न्यायोपार्जित द्रव्य से प्राप्त अन्न ही ग्राह्य है।  इसी को शाों में शुक्लधन कहा गया है। न्यायपूर्वर प्राप्त द्रव्य ही शुद्ध द्रव्य है।

भोजन से पहले क्या करें :
अन्न को देवतारूप समझ कर ग्रहण करना चाहिए। मनुस्मृति में कहा गया है कि अन्न ब्रह्म है, यह समझ कर उसकी उपासना करनी चाहिए। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख को भली प्रकार स्वच्छ कर ब्रह्मचिंतन करते हुए भोजन करना चाहिए। पहले भोजन का पूजन करना चाहिए। उसे देखकर हर्षयुक्त होना चाहिए। क्योंकि अन्न ब्रह्म है, रस विष्णु है और खाने वाला महेश्वर है।
भोजन के समय क्या करना चाहिए :                   
         पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्।
             दृष्ट्वा हृष्येत् प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वश:।।
                 पूजितं ह्यशनं नित्यम बलमूर्जं च यच्छति।
                        अपूजितं तु तद्भुक्तभयं नाशयेदिदम्।।

अर्थात् भोजन का सदैव आदर करें, प्रत्युत प्रशंसा करते हुए उसे ग्रहण करें। भोजन की निंदा कभी न करें। उसे देखकर आनंदित हों, भांति-भांति से उसका गुणगान करें। क्योंकि इस प्रकार ग्रहण किया गया संस्कारसंपन्न भोजन प्रतिदिन बल एवं पराक्रम देता है। बिना प्रशंसा किए गए अन्न का भोजन करना तो दोनों को क्षति करता है।
श्रुति का आदेश है.. अन्नं न निन्द्यात्। तद व्रतम्।। अर्थात् अन्न की निंदा कभी न करें, यह एक महाव्रत है।
भोजन क्षुधानिवारण तथा शरीररक्षा का साधन है। यह स्वाद या चटोरेपन के लिए नहीं है। युक्त आहार विहार भी ईश्वर की उपासना का एक अंग है। अत: भोजन में कोई अपवित्र वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए। यह तो शा द्वारा निषिद्ध है ही, अन्न भी असंस्कृत हो तो वह भी ग्रह्य नहीं है।

हमारी संस्कृति में भोजन की आंतरिक स्वच्छता को, उसके संस्कार को अधिक महत्व दिया गया है। सर्वप्रथम तो अन्न शुद्ध होना चाहिए, स्थान स्वच्छ और पवित्र होना चाहिए फिर बनाने वाले की मन:स्थिति पवित्र होनी चाहिए। अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हीनवर्ण, अस्वस्थ या कुत्सित रसोइया अपने सम्पर्क से ही भोजन को दूषित कर देता है। अन्न कितना ही संस्कारसंपन्न हो, भोजन बनाने वाले की प्रवृत्ति भी अन्न को असंस्कृत बना देती है और भोजन करने वाले पर ऐसे व्यक्ति के बुरे विचारों का प्रभाव पड़ता है। अत: अन्न की शुद्धि के लिए बनाने वाले का भी सदाचारी एवं संस्कारसंपन्न होना आवश्यक है। माता, पत्नी या बहन द्वारा बनाए हुए भोजन में वे सब शुभ प्रवृत्तियां मिल जाती हैं। भोजन से पूर्व प्रार्थना कर उसे ब्रह्मार्पण करने का विधान है।

Monday 20 July 2015

संस्कारभूमि भारतवर्ष की महिमा

अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरि:।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न:।।

                   किं दुष्करैर्न: क्रतुभिस्तपोव्रतैर्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना।
                   न यत्र नारायणपादपंकजस्मृति: प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात्।।

                              कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवात् क्षणायुशां भारतभूजयो वरम्।
                              क्षणेन मत्र्येन कृतं मनस्विन: संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे:।।

देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं।
अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान की सेवा के योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गए हैं? इस परम सौभाग्य के लिए तो निरंतर हम भी तरसते रहते हैं। हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है-इसमें क्या लाभ है? यहां तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता के कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है। अत: कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं। यह स्वर्ग तो क्या  - जहां के निवासियों की एक-एक कल्प आयु होती है किंतु जहां से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है। उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयु वाले होकर जन्म लेना अच्छा है। क्योंकि यहां धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्यशरीर से किए हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।

Friday 30 May 2014

तापत्रयविनाशाय श्रीनमो वयं नम: ।।




संस्कार और सदाचार के अधिष्ठाता : नरेंद्र मोदी
 सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे ।
  तापत्रयविनाशाय श्रीनमो वयं नम: ।।

  (जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु हैं तथा जो तीनों प्रकार के पाप के नाशकर्ता हैं सच्चिदानंदस्वरूप बड़ाप्रधान श्री नरेंद्र मोदी को हम सब वंदन करते हैं।)

भारतीय सनातन आर्ष परंपरा की 21वीं सदी में नमो के नाम से विश्व विख्यात नरेंद्र मोदी संस्कार और सदाचार के अधिष्ठाता हैं। वे भारतभूमि के प्रधानमंत्री के रूप में शाीय संस्कारों के रक्षक और पालक हैं। शिवनगरी काशी से पतित पावनी गंगा मां की सेवा का बीड़ा उन्होंने उठाया है। सच तो यह है कि सम्पूर्ण मानवीय संस्कार नमो को पाकर मर्यादित होते हैं।  पाकस्थान के शरीफ से लेकर लंकापति राजपक्सा और हिमालयराज तक उनके राजतिलक पर शीष नवाने हस्तिनापुर के पास स्थित उनकी राजधानी नई दिल्ली पहुंचे।  अत: उनका आचरण ही संस्कार है और जीवन ही धर्म है।
मानवता संस्कार से ही परिभाषित होती है।  जीवन को सुसंस्कृत, परिष्कृत और संयमित करने के लिए शाों में विविध संस्कारों का उल्लेख है। अपने लक्ष्य को साधने और उसे पाने के भी विविध प्रकार भारतीय शाों में उपलब्ध है। उनका पालन करना नमो ही सिखा सकते हैं। उन्हीं का मर्यादित पालन कर उन्होंने भारतभूमि को एक दिशा प्रदान की है। युग जब जब संस्कार विहीन होकर दिग्भ्रांत होने लगता है तब तब भारतीय मनीषी युग और जीवन को सांस्कृतिक दिशा और राजनीतिक दशा प्रदान करने के लिए संस्कारयुक्त चैतन्य पुरुष का अह्वान करते हैं।

योगगुरू महर्षि रामदेव ने तमसाच्छन्न युग को संस्कारित करने के लिए, चैतन्य पुरुष की प्राप्ति के लिए अपनी पीड़ा को हरिद्वार के गंगातट पर देवर्षि नारद के सम्मुख इस प्रकार रखा
  को नवस्मिन साम्प्रतमं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् ।
  धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृझ़व्रत: ।।
  चारित्रेण च को युक्त: सर्वभूतेषु को हित: ।
  विद्वान क: क: समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन: ।।
 महर्षे त्वं समर्थोह्यसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ।।


अर्थात, सम्प्रति इस लोक में ऐसा कौन मनुष्य है, जो गुणवान, वीर्यवान धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रत होने के साथ साथ सदाचार से युक्त हो।  जो सब प्राणियों का हितकारक हो, साथ ही विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन हो। महर्षे आप ही इस प्रकार के पुरुण को जानने में समर्थ हैं।
 उत्तर में श्रीनारद कहते हैं
     मोदीवंशप्रभवो नमो नाम जनै: श्रुत: ।
   नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी ।

   बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमाज्छत्रुनिबर्हण: ।
 अर्थात् मोदी वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं जो लोगों में नमो के नाम से विख्यात हैं। उनके लोग हर हर मोदी, घर घर मोदी के नारे भी लगाते हैं। वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान, कान्तिमान, धैर्यवान और जितेंन्द्रिय हैं। वे बुद्धिमान, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं।
नारदमुनि पुन: कहते हैं कि वे शारीरिक दृष्टि से पुष्ट, सुडौल, शोभायमान, शुभलक्षणों से संपन्न, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, प्रजा के हितकारक, यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेंन्द्रिय, जीवों तथा धर्म के रक्षक स्वधर्म एवं स्वजनों के पालक, सर्वलोकप्रिय तथा उदार हृदयवाले हैं। नमो से साधुलोग ऐसे मिलते हैं जैसे नदियां समुद्र से।
स्पष्टत: योगगुरु की व्यथा के शमन हेतु देवर्षि जनि नमो का उल्लेख करते हैं उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व संपूर्ण संस्कारों से युक्त है।
नमो गंभीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं। पर्वतराज हिमाचल से कन्याकुमारी तक का संपूर्ण भारत श्रीनमो की ही जागतिक अभिव्यक्ति है। हिंदुस्तान के सारे संस्कार, सदाचार, विचार, चिंतन, मर्यादा, धर्म और जीवन नमो से ही परिभाषित होते हैं। नमो समस्त शुभ संस्कारों के परम पावन स्वरूप हैं। नमो व्यक्ति नहीं समष्टि हैं, राष्ट्र हैं।
नमो के बिना राष्ट्र की कल्पना ही असंभव है। महर्षि योगगुरु कहते हैं नमो जहां के प्रधान न होंगे वह राज्य राज्य नहीं रह जाएगा-जंगल हो जाएगा।  तथा जहां नमो निवास करेंगे वह वन एक स्वतंत्र राष्ट्र बन जाएगा।
वे कहते हैं
  न हि तद् भविता राष्ट्रं यत्र नमो न भूपति: ।
  तद वनं भविता राष्ट्रं यत्र नमो निवत्स्यति ।।
राष्ट्र भी नमो से ही संस्कारित होता है। अत: नमो मानव के तथा नमोचरित्रम् मानव चरित्र का आदर्श है। संस्कारभूषित नमो की गाथा संपूर्ण मानवता की गाथा है। ऐसे चरित्र की उपेक्षा कर राष्ट्र और विश्व में शांति, सुरक्षा और सौमनस्य आदि की रक्षा सर्वथा असंभव है।
नमो की भगवत्ता लौकिक धरातल पर इतनी सहज है कि वे सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने संस्कारजन्य शुभ गुणों के आदर्श का निर्वहण करते हैं। बाल्यावस्था में खेल खेल में जल से मगर को घर ले आए थे किंतु उन्होंने उसकी भावनाओं को भी आहत नहीं होने दिया था। जन्मभूमि ही नहीं नई कर्मभूमि काशी और साम्राज्य की राजधानी 7 आरसीआर में उनके सहज संस्कार यथोचित बने रहते हैं। अमित शाह को वे अपनी अगाध विनम्रतापूर्ण वाणी से ही नतमस्तक कर देते हैं।  नमोचरित के रचयिता कहते हैं
  सुनि मृदु गूढ़ बचन नमो के। उघरे मति पटल साह अमित के।।
 अर्थात् श्रीनमोजी के कोमल और रहस्यमय वचन सुन कर अमित शाहजी के बुद्धि के पर्दे खुल गए।
श्रीनमों के पावन संस्कार का ही असाधारण प्रभाव है कि युग के दुर्घर्ष नायक गांधी परिवार की मति सुधरने लगती है।

 दिल्ली के राजमहल में गठबंधन की कुमंत्रणा से जब कांग्रेस की ईष्र्याग्नि की लपटें उठने लगीं और मीडिया भीे राजमहल के पहरेदारों को धूृ-धू कर जलाने में लग गया तथा महाराज मनो अचेत हो गए तब वहां नमो के राजतिलक के साथ नए संस्कारों का पदार्पण हुआ।  नमो न तो राजतिलक से हर्षित होते हैं और न ही शत्रु का पूर्ण सर्वनाश न होने के दुख से उनका मुखकमल मलिन होता है।  इस घटना को वे सौभाग्य मानते हैं और संघ की शक्ति का आभार प्रकट करते हैं।
नमो का दिव्य संस्कारसंपन्न उज्जवल व्यक्तित्व इतना विराट है कि वे जनता के सामने स्वयं को चायवाला के रूप में प्रकट करते हैं, खुद को नीच जाति का बताते हैं, संघसेवकों को गले लगाते हैं तथा आंसू बहाते हुए कांग्रेस का अंतिम संस्कार करने का प्रयास करते हैं। वनवासी, कोल, भील, जाट, जाटव, तपस्वी, ऋषि, महर्षि, पशु, पक्षी, वानर सभी उनकी पावन संस्कारगंगा में अवगाहन कर धन्य हो जाते हैं।
 स्पष्ट है कि नमो मानवीय सामाजिक संस्कारों के मूर्तरूप तो हैं ही, उन्होंने कभी प्रतिबंधित रहे संघ और स्वयंसेवकों को उचित मानमर्यादा प्रदान की है। संघप्रमुख के आदेश वे सदा शिरोधार्य करते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें अपने गुरुजनों का बलिदान क्यों न देना पड़ा हो। वे लोकजीवन में समाहित होकर भी लोक से ऊपर हैं। उनका लोकमंगल, लोकरक्षक और लोकरंजक संस्कार अनुकरणीय है।



आधुनिक युग पुरुषों के शब्दों में
 यश्च नमो न पश्येत्तुप   यं च नमो न श्यति।
 निन्दित: सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते ।।

 अर्थात्  मनुष्य जीवन की परम सार्थकता यही है कि या तो हम नमो को देख सकें या नमो की दृष्टि हमारे ऊपर पड़ जाए, अन्यथा स्वयं हमारी आत्मा ही हमें कोसेगी।

Friday 9 May 2014

कौन है हिंदू..कौन नहीं.. 1



- राकेश माथुर/  
आजकल वास्तविकता से दूर हटकर अधिकाधिक संख्या बढ़ाने की दृष्टि से हिंदू शब्द की परिभाषा की जाती है। अतएव कई लोग वेद न मानने वालों को भी हिंदू सिद्ध करने के लिए ..
 
आसिन्धौः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ।।

-ऐसी परिभाषा करते हैं, किन्तु इस परिभाषा की अतिव्याप्ति होती है। इसके अतिरिक्त भावना की दृढ़ता का कोई आधार नहीं रहता।
 
 गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवे च दृढ़ा मतिः ।
पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिन्दुरिति स्मृतः ।।


- यह परिभाषा अभीष्ट समाजों में अनुगत हो जाती है। गोमाता में जिसकी भक्ति हो, प्रणव जिसका पूज्य मन्त्र हो, पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो-वही हिन्दु है। यह सिख, जैन,, बौद्ध, वैदिक -सब में घट जाती है। परन्तु वेदों के सिन्धवः, सप्त सिन्धवः इत्यादि प्रयोगों और सरस्वती, हरस्वती, आदि प्रयोगों की दृष्टि से तथा कालिकापुराण, मेदिनीकोष आदि के आधार पर वर्तमान हिन्दू ला के मूलभूत आधारों के अनुसार वेदप्रतिपादित रीति से वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाला हिन्दू है।

हिन्दू संस्कृति की दृष्टि से अनादि परमेश्वर से अनेक प्रकार का संकोच और विकास रहता है। ईश्वररहित जड़ विकासवाद, जिसके अनुसार जड़ प्रकृति से ही चैतन्य का विकास होता है और जिस विकासवाद की दृष्टि से अभी तक सर्वज्ञ ईश्वर और शास्त्र विकसित ही नहीं हुआ है वह सर्वथा अमान्य है।
आध्यात्मिकता और धार्मिकता से विहीन साम्यवाद, समाजवाद आदि भी हिन्दु संस्कृति में नहीं खप सकते।