राकेश माथुर /

एक विद्वान ने कहा है कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में सकारात्मक चिंतन और नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का संयोजन ही संस्कार कहलाता है। इन संस्कारों की जड़ें अतीत में जमती हैं, वर्तमान में विकास पाती हैं और भविष्य में पल्लवित-पुष्पित होती हैं। हमारे नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक गौरव की जड़ें बहुत मजबूत हैं, लेकिन आज पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध हमें विवेकहीन बनाती जा रही है।हमारा युवा वर्ग पश्चिम की हर चीज को बिना विवेक के अच्छा कह कर उसका अनुसरण करने लगा है। क्या हमें नहीं लगता कि हमारी संस्कृति की बागडोर वर्तमान में ही हमसे टूटने लगी है तो फिर भविष्य में इसमें कैसे फूल खिलेंगे और फल लगेंगे? हमें इस सांस्कृतिक प्रदूषण को रोकने का प्रयास करना है।
हमारे ऋषियों ने कहा है कि धर्म आचरण में पलता है एवं सेवा से व्यापक होता है। अत: उन्होंने आचार: परमो धर्म: की व्यवस्था दी। यह भी कहा कि चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति एवं सम्पदा है। अनन्त सम्पदाओं का स्वामी होने पर भी यदि मनुष्य चरित्रहीन हा तो वह विपन्न ही माना जाएगा। हमारा धर्म हमें एवं हमारे जीवन को समग्रता में जीना सिखाता है। धर्म की शिक्षा दिए बिना किसी को शिक्षित करने का अर्थ उसे एक चतुर शैतान बनाना है।
जीवन केवल शिक्षा प्राप्ति के लिए नहीं है बल्कि विवेकपूर्वक आत्मा के गुणों के विकास के लिए है। प्राप्त शिक्षा का दुरुपयोग न होने पाए इसके लिए शिक्षित मानव का दीक्षित होना अनिवार्य है। श्रीरामचरितमानस में एक दोहे के एक चरण में कहा गया है..साधक सिद्ध सुजान..प्रश्न है कि जब साधक से सिद्ध हो गया हो तो फिर तुलसीदासजी ने सुजान शब्द क्यों जोड़ा? कारण स्पष्ट है..रावण साधक से सिद्ध हो चुका था। अनेक प्रकार की सिद्धियां उसे प्राप्त थीं, लेकिन सुजान अर्थात् संस्कारित न होने के कारण वह अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग कर बैठा। और वह दुरुपयोग ही उसके सर्वनाश का कारण बना। अत: सिद्ध होने के बाद सुजान होना आवश्यक है।
आज का संदर्भ लें तो विश्व में इतनी आणविक शक्ति मौजूद है कि हमारी धरती को कई बार नष्ट करने की क्षमता उसमें है। आणविक शक्ति का दुरुपयोग इतना भयंकर और प्रलयंकारी होगा कि सारी सभ्यता और संस्कृति हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगी। उसका दुरुपयोग रोकने का एकमात्र उपाय सुजनता ही है।
पिता की विरासत :
पिता धन धन देता है पुत्र को। यदि पुत्र संस्कारित नहीं है तो वह इस प्राप्त धन को नष्ट कर देगा। पुत्र यदि संस्कारित है तो उसे पतिा से धन नहीं मिले तो भी वह धन पैदा कर लेगा। अत: पुत्र को केवल धन देने का महत्व नहीं, संस्कार देने का महत्व है।
हमारे यहां संस्कारित और सदाचारी व्यक्ति उसी को कहा गया है जिसकी क्रियाएं विकार के अधीन न होकर विचार के नियंत्रण में होती हैं। जो विवेकशील होता है उसकी इंद्रियां उसके नियंत्रण में रहती हैं। अन्यथा जिस प्रकार दुष्ट घोड़े रथ में बैठे व्यक्ति को संकट में डाल देते हैं उसी प्रकार अनियंत्रित इंद्रियां मनुष्य को पतन की ओर ले जाती हैं। जो शरीर, वाणी तथा मन से संयत है तथा स्वार्थ के लिए असत्य नहीं बोलता ऐसे व्यक्ति को ही सदाचारी कहते हैं।
गुण से रूप की, दान से धन की, सदाचार से कुल की शोभा होती है। कमल की प्रार्थना के बिना ही सूर्य उसे विकसित कर देता है। कुमुदनी की प्रार्थना के बिना ही चंद्रमा उसे खिला देता है। सदाचारी स्वत: ही दूसरों के हित में काम करते हैं। उन्हें किसी के द्वारा याचना की प्रतीक्षा नहीं रहती। सदाचारी एवं संस्कारित व्यक्ति की पहचान उसके आचरण से होती है।
एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से किसी ने पूछा कि महाराज ऐसे लोग भी देखने में आते हैं जिन्हें पूरी रामायण, श्रीमदभागवत तथा गीता याद हैं लेकिन उनका जीवन पवित्र नहीं है। ऐसा क्यों? इस पर श्रीरामकृष्ण परहंसदेवजी महाराज ने कहा, तुमने निर्मल आकाश में उड़ते हुए गिद्ध को देखा है न। उड़ता तो निर्मल आकाश में ही है लेकिन उसकी दृष्टि कहां है, पृथ्वी पर पड़े सड़े मांस पर। वह जैसे ही पृथ्वी पर सड़ा मांस देखता है सीधे नीचे गोता लगाता है और उस तक पहुंच जाता है। इसलिए जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि का निर्माण होता है। इसलिए संतों ने कहा है कि अपनी दृष्टि पावन रखो। नेत्र शुद्ध होंगे तो मन में राम प्रवेश करेगा नेत्र अशुद्ध होंगे तो काम प्रवेश करेगा।
हमारा न धन से काम होता है न बल से, न नाम से न यश से। वरन् हमारी सच्चरित्रता ही कठिनाइयों की दीवारों को तोड़ कर अपना रास्ता सुगम बना लेती है। आचरणरहित विचार कितने अच्छे क्यों न हों, उन्हें खोटे मोती की तरह ही समझना चाहिए। हमारी सच्चरित्रता हमें आलस्य एवं अपव्यय जैसे दुर्गुणों से बचाती है। जैसे फूटे घड़ेे में कुछ भी संचय नहीं होगा, वैसे ही दुर्गुणों के कारण कुछ भी उपलब्धि नहीं होगी। सदाचारी व्यक्ति शुद्ध होता है और जो शुद्ध होता है वही बुद्ध होता है।
सच्चरित्र एवं संस्कारित व्यक्ति समय और साधन का सदुपयोग करते हैं। अत: हमें चाहिए कि समय और साधन का सदुपयोग करें। और इसके लिए चरित्रवान एवं संस्कार संपन्न बनें।
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