Tuesday, 21 July 2015

आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:

शुद्ध अन्न से अंत:करण की शुद्धि



भारतीय संस्कृति यह मानती है कि भोजन की शुद्धि होने पर मानव के सत्व की शुद्धि होती है और अंत:करण निर्मल एवं पावन हो जाता है।  इतना ही नहीं, सत्व की शुद्धि होने पर समृति दृढ़ हो जाती है।  और समृति के ध्रुव हो जाने पर हृदय की ग्रंथियों का भेदन हो जाता है - सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भेसर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष:।  इस प्रकार अन्न की शुद्धि की बहुत महिमा है।  इसलिए भारतीय सनातन संस्कृति ने अन्न एवं आहार की शुद्धि पर विशेष बल दिया है। अन्नमय: हि सौम्य मन:। अर्थात् हे सौम्य अन्न से ही मन बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन हो जाता है और तदनुरूप ही बुद्धि, भावना, विचार एवं कल्पनाशीलता निर्मित होती है।
सनातन आदर्श यह रहा है कि ईमानदारी की कमाई ही खाई जाए। बेईमानी, असत्य तथा धोखेबाजी से अर्जित जीविका से बचा जाए। अथर्ववेद का कथन है.. रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या: पापीस्ता अनीनशम्।।  अर्थात् पुण्य से कमाया हुआ धन ही मनुष्य को समृद्धि दे सकता है। जो पापयुक्त धन है, उसको मैं नाश करने वाला जानूं। न्यायोपार्जित द्रव्य से प्राप्त अन्न ही ग्राह्य है।  इसी को शाों में शुक्लधन कहा गया है। न्यायपूर्वर प्राप्त द्रव्य ही शुद्ध द्रव्य है।

भोजन से पहले क्या करें :
अन्न को देवतारूप समझ कर ग्रहण करना चाहिए। मनुस्मृति में कहा गया है कि अन्न ब्रह्म है, यह समझ कर उसकी उपासना करनी चाहिए। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख को भली प्रकार स्वच्छ कर ब्रह्मचिंतन करते हुए भोजन करना चाहिए। पहले भोजन का पूजन करना चाहिए। उसे देखकर हर्षयुक्त होना चाहिए। क्योंकि अन्न ब्रह्म है, रस विष्णु है और खाने वाला महेश्वर है।
भोजन के समय क्या करना चाहिए :                   
         पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्।
             दृष्ट्वा हृष्येत् प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वश:।।
                 पूजितं ह्यशनं नित्यम बलमूर्जं च यच्छति।
                        अपूजितं तु तद्भुक्तभयं नाशयेदिदम्।।

अर्थात् भोजन का सदैव आदर करें, प्रत्युत प्रशंसा करते हुए उसे ग्रहण करें। भोजन की निंदा कभी न करें। उसे देखकर आनंदित हों, भांति-भांति से उसका गुणगान करें। क्योंकि इस प्रकार ग्रहण किया गया संस्कारसंपन्न भोजन प्रतिदिन बल एवं पराक्रम देता है। बिना प्रशंसा किए गए अन्न का भोजन करना तो दोनों को क्षति करता है।
श्रुति का आदेश है.. अन्नं न निन्द्यात्। तद व्रतम्।। अर्थात् अन्न की निंदा कभी न करें, यह एक महाव्रत है।
भोजन क्षुधानिवारण तथा शरीररक्षा का साधन है। यह स्वाद या चटोरेपन के लिए नहीं है। युक्त आहार विहार भी ईश्वर की उपासना का एक अंग है। अत: भोजन में कोई अपवित्र वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए। यह तो शा द्वारा निषिद्ध है ही, अन्न भी असंस्कृत हो तो वह भी ग्रह्य नहीं है।

हमारी संस्कृति में भोजन की आंतरिक स्वच्छता को, उसके संस्कार को अधिक महत्व दिया गया है। सर्वप्रथम तो अन्न शुद्ध होना चाहिए, स्थान स्वच्छ और पवित्र होना चाहिए फिर बनाने वाले की मन:स्थिति पवित्र होनी चाहिए। अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हीनवर्ण, अस्वस्थ या कुत्सित रसोइया अपने सम्पर्क से ही भोजन को दूषित कर देता है। अन्न कितना ही संस्कारसंपन्न हो, भोजन बनाने वाले की प्रवृत्ति भी अन्न को असंस्कृत बना देती है और भोजन करने वाले पर ऐसे व्यक्ति के बुरे विचारों का प्रभाव पड़ता है। अत: अन्न की शुद्धि के लिए बनाने वाले का भी सदाचारी एवं संस्कारसंपन्न होना आवश्यक है। माता, पत्नी या बहन द्वारा बनाए हुए भोजन में वे सब शुभ प्रवृत्तियां मिल जाती हैं। भोजन से पूर्व प्रार्थना कर उसे ब्रह्मार्पण करने का विधान है।

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