Monday, 20 July 2015

संस्कारभूमि भारतवर्ष की महिमा

अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरि:।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न:।।

                   किं दुष्करैर्न: क्रतुभिस्तपोव्रतैर्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना।
                   न यत्र नारायणपादपंकजस्मृति: प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात्।।

                              कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवात् क्षणायुशां भारतभूजयो वरम्।
                              क्षणेन मत्र्येन कृतं मनस्विन: संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे:।।

देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं।
अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान की सेवा के योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गए हैं? इस परम सौभाग्य के लिए तो निरंतर हम भी तरसते रहते हैं। हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है-इसमें क्या लाभ है? यहां तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता के कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है। अत: कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं। यह स्वर्ग तो क्या  - जहां के निवासियों की एक-एक कल्प आयु होती है किंतु जहां से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है। उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयु वाले होकर जन्म लेना अच्छा है। क्योंकि यहां धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्यशरीर से किए हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।

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